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________________ १८ आत्मशिक्षा भावना प्रेमविजय प्रेमे करी, ऊलट आणी अंग ॥ १८०॥ श्री रत्नहर्ष विबुध मुझ, बंधु तास पसाय । तास सानिध ग्रंथ में कर्यो, मन धरि हर्ष अपार ॥ १८२॥ मूढ मति छे माहरी, कवि मत करजो हास । कृपा करी मुझ ऊपरे, शोधी करजो खास ॥ १८२ ॥ संवत् सोल बाराट्ठिए, वैशाख पूनम जोय । वार गुरु सहि दिन भलो, एह संवत्सर होय ॥ १८३॥ नयर उज्जेणीमां वली, आतम-शिक्षा नाम । मन भाव धरि ने तिहां करी, सिधां वंछित काम || १८४ ॥ एक शत एशी पांच ए, दोहा अति अभिराम । भणे गुणे जे सांभले, तेह लहे शिवठाम ॥ १८५ ॥ ॥ आत्म-निंदा ॥ हे आत्मन् ! हे चेतन ! तू ज्ञानस्वरूप है । फिर अज्ञानियों जैसी हरकतें क्यों करता है, जैसे, कुदृष्टि, कुश्रद्धा से अकार्य में प्रवर्त्त कर विषय रस- गृद्धिपना खोटी दृष्टि का चिंतन मत कर, कभी तू सम्यक्त्व मोहनी में कभी मिश्रमोहनी में कभी मिध्यात्व मोहनी में, कभी कामराग में, कभी स्नेहराग में, कभी दृष्टिराग में, कभी कुगुरु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003812
Book TitleAtma Bodh Sara Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKavindrasagar
PublisherKavindrasagar
Publication Year1975
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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