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आत्मशिक्षा भावना
प्रेमविजय प्रेमे करी, ऊलट आणी अंग ॥ १८०॥ श्री रत्नहर्ष विबुध मुझ, बंधु तास पसाय । तास सानिध ग्रंथ में कर्यो, मन धरि हर्ष अपार ॥ १८२॥ मूढ मति छे माहरी, कवि मत करजो हास । कृपा करी मुझ ऊपरे, शोधी करजो खास ॥ १८२ ॥ संवत् सोल बाराट्ठिए, वैशाख पूनम जोय । वार गुरु सहि दिन भलो, एह संवत्सर होय ॥ १८३॥ नयर उज्जेणीमां वली, आतम-शिक्षा नाम । मन भाव धरि ने तिहां करी, सिधां वंछित काम || १८४ ॥ एक शत एशी पांच ए, दोहा अति अभिराम । भणे गुणे जे सांभले, तेह लहे शिवठाम ॥ १८५ ॥
॥ आत्म-निंदा ॥
हे आत्मन् ! हे चेतन ! तू ज्ञानस्वरूप है । फिर अज्ञानियों जैसी हरकतें क्यों करता है, जैसे, कुदृष्टि, कुश्रद्धा से अकार्य में प्रवर्त्त कर विषय रस- गृद्धिपना खोटी दृष्टि का चिंतन मत कर, कभी तू सम्यक्त्व मोहनी में कभी मिश्रमोहनी में कभी मिध्यात्व मोहनी में, कभी कामराग में, कभी स्नेहराग में, कभी दृष्टिराग में, कभी कुगुरु
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