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श्री क्षमाछत्रोसी
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पांच वार ऋषिने संताप्यो, आणी मनमां द्वषजी ॥ पंच भव सीम दह्यो नंद नाविक, क्रोध तणां फल देखजीआ०॥१६॥ सागरचन्दनु शीश प्रजाली, निशि नभसेन नरिंद जी॥ समता भाव धरी सुरलोके, पहोतो परमानंद जी ॥आ० ॥१७॥ चन्दना गुरुणीये घणु निभ्रछी, घिग धिग तुझ अवतार जी ॥ मृगावती केवलसिरि पामी, एह क्षमा अधिकार जो आ०॥१८॥ सांब प्रद्युम्न कुवर संताप्यो, कृष्ण द्वैपायन साहजी ॥ क्रोध करी तपनु फल हार्यो, कीधो द्वारिका दाह जीआ०॥१६॥ भरत मारण मूठी उपाड़ी, बाहूबल बलवंत जी ॥ उपसम रस मनमांहे आणी, संयम ले मतिमंतजी आ०॥२०॥ काउसग्गमां चडियो अतिक्रोधे, प्रश्नचन्द्र ऋषिराय जो ।। सातमी नरक तणां दल मेल्या, कडुआं तेण कषायजीआ०॥२१॥ आहारमाहे क्रोधे ऋषि थुक्यो, आण्यो अमृत भावजी ॥ कूरगडुये केवल पाम्यु, क्षमातणे परभाव जी आ० ॥२२॥ पार्श्वनाथ ने उपसर्ग कीधा, कमठ भवांतर धीठजी ॥ नरक तिर्यच तणां दुःख लावां, क्रोध तणां फल दीठजी।।आ०॥२३॥ क्षमावंत दमदंत मुनीश्वर, वनमा रह्यो काउसग्ग जी ॥ कौरव कटक हण्यो ईटाले, प्रोड्या कर्मना वर्गजीआ०॥२४॥ सय्यापालक काने तरुओ, नान्यो क्रोध उदीरजी ॥ बेहु काने खीला ठोकाणा, नवि छूटा महावीरजीआ०॥२५॥ चार हत्या नो कारक हुँतो, दृढ़प्रहार अतिरेकजी ॥ क्षमाकरी ने मुक्त पहोतो, उपसर्ग सह्यां अनेकजी||आ०॥२६॥
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