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श्री क्षमाछत्रीसी पहुरमाहे उपजतो हार्यो, क्रोधे केवलनाणजी ॥ देखो श्रीदमसार मुनीशर, सूत्र गुण्यो उठाणजी आ०॥२७॥ सिंह गुफावासी ऋषि कीघो, थुलिभद्र ऊपर कोपजी ॥ वेश्या वचन गयो नैपाले, कीधो संजम लोपजीआ०॥२८॥ चन्द्रवतंसक काउसग्ग रहियो, क्षमा तणो भंडारजी ॥ दासी तेल भर्यो निशि दीवो, सुरपदवी लहे सारजीआ०॥२६॥ इम अनेक तर्या त्रिभुवन में, क्षमागुणे भवि जीवजी ॥ क्रोध करी कुगते ते पहोता, पाडता मुख रीवजी आ० ॥३०॥ विष हालाहल कहीये विरुओ, ते मारे एक वारजी ॥ पण कषाय अनंती वेला, आपे मरण अपारजीआ०॥३१॥ क्रोध करंता तप जप कीधा, न पड़े कांई ठामजी ॥ आप तपे परने संतापे, क्रोधशु केहो कामजी ॥आ० ॥३२॥ क्षमा करंता खरच न लागे. भांगे क्रोड़ कलेश जी ॥ अरिहन्त देव आराधक थाये, व्यापे सुजस प्रदेशजी आ०॥३३॥ नगरमांहे नागोर नगीनो, जिहाँ जिनवर प्रासादजी ॥ श्रावक लोक वसे अति सुखिया, धर्मतणे परसादजी ॥आ०॥३४॥ क्षमाछत्रीसी खांते कीधी, आतम पर उपगारजी ॥ सांभलतां श्रावक पण समज्या, उपशम धर्यो अपारजीआ०३५॥ जुगप्रधान जिणचन्दसूरीशर, सकलचन्द तसु शिष्यजी ॥ समयसुन्दर तसु शिष्य भणे इम, चतुर्विध संघ जगीशजीआ०॥३६॥
इति श्री क्षमछत्रीसी सम्पूर्ण ।
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