Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 101
________________ समाधि विचार ध्याता ध्येयमो. एकता, ध्यान करता, होय। __ आतम होय परमातमा, एम जाणे ते सोय ॥ ३६२ ॥ सम्यक्दृष्टि शुभमति, शिवसुख चाहे तेह। रागादि परीणामसों, खिण नवी वरते तेह ।। ३६३ ॥ किणही पदार्थ की नहीं, वांछा तस चितमाह । मोक्ष लक्ष्मी वरवा भणी, धरतो अति उछांह ॥ ३६४ ॥ एणिविधि भाव विचारतां, काल पुरण करे सोय । ___ आकुलता किणविध नहीं, निराकुल थिर होय ॥ ३६५ ॥ आतमसुख आणंदमय, शांत - सुधारस कुंड। तामे ते झीलो रहे, आतम. वीरज उदंड ।। ३६६ ॥ आतम सुख स्वाधीन छे, और न एह समान । एम जाणी निजरूप मैं, वरते घरी बहुमान ॥ ३६७॥ एम आणंदमा वरतता, शांत परिणाम संयुक्त । आयु निज पुरण करी, मरण लहे मतिवंत ।। ३६८ ॥ एह समाधि प्रभावथो, इन्द्रादिक को ऋद्ध । उत्तम पदवी ते लहे, सर्व कारज को सिद्ध ।। ३६६ ।। महा विभूति पायके, विचरंता भगवान् । वलि केवली मुनिराजने, वंदे स्तवे बहुमान ॥ ३७० ।। सुरलोके शास्वत प्रभु, नित्य भक्ति करे तास। कल्याणक जिनराजना, ओच्छवं करत उलास ॥ ३७१ ।। नंदीसर , आदे घणां, तीरथ वंदे सार। समकित निर्मल ते करे, सफल करे अवतार ॥ ३७२ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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