Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 98
________________ समाधि विचार प्रथम देव गुरु धर्म की करो अति गाढ प्रतीत । मित्राई करो सुजन की, धर्मी धरो प्रीत ॥३२६।। दान शियल तप भावना, धर्म ए चार प्रकार । राग धरो नित्य एहसु, करो शक्ति अनुसार ॥३३०॥ सजन तथा परजन विषे, भेदविज्ञान जेम होय। एह उपाय करो सदा, शिव सुखदायक सोय ॥३३१॥ जे संसारी प्राणिया, मगन रहे संसार । प्रीत न कीजिये तेह की, ममता दूरनिवार ॥३३२॥ रागी जीव की संगते, एह संसार मझार । काल अनादि भटकतां, किम ही न लहीये पार॥३३३॥ रागे राग दशा वधे, तेम वली विषय विकार । ममता मूर्छा बहु वधे, ए दुर्गति दातार ॥३३४॥ तेणे संसारी जीव की. तजी संगत दिलधार । ज्ञानवंत पुरुषां तणी, करो संगति सुविचार ॥३३५।। धर्मात्मा पुरुष तणी, संगते बहु गुण थाय । जश कीर्ति वाधे घणी, परिणति सुघरे भाय ॥३३६॥ एम अनेक गुण संपजे, एह लोक में सुखकार । वली परलोक में पामीये, स्वर्गादिक सुखसार ॥३३७।। वली उत्तम पुरुषतणी, संगते लहीये धर्म । धर्म आराधी अनुक्रमे, पामीये शिवपुर सर्म ॥३३८॥ धरमी उत्तम पुरुष की, संगति सुखनी खाण। दोष सकल दूरे टले, अनुक्रमें पद निर्वाण ॥३३६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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