Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 96
________________ समाधि विचार एह शरीर असार छे, विणसंता नहीं वार । थिति बल सवि पूरण हुआ, खीणमें होयगी छार ॥३०७॥ तिण कारण तुमकुँ कहुँ, म घरो इणकी आश । गरज सरे नहीं ताहरी, इनका होये अब नाश ॥ ३०८ || एम जाणी ममता तजी, घरम करो धरि प्रीत | जेम आतम सुख संपजे, ए उत्तम की रीत ॥ ३०६ ॥ काल जगत में सहु सिरे, गाफल रहेणा नाहीं । कबहीक तुजकुँ पण ग्रहे, संशय इणमें नांहीं ॥३१० ॥ तुं मुज प्यारी नारी छे, ए सवि मोह विलास । भोग विटंबना जाणीये, आतम गुण को नाश ।। ३११ ।। स्त्री भरतार संजोग जे, भव नाटक एह जाण । चेतन तुज मुज सारीखो, कर्म विचित्र बखाण || ३१२|| एम विचार चित्त में घरी, ममता मूको दूर | निज स्वारथ साधन भणी, धर्म करो थइ शूर ॥ २१३ ॥ जो मुज ऊपर राग छे, तो करो घरम में सहाज । इ अवसर तुज उचित है, ए समो अवर न काज ॥३१४॥ धरम उपदेश एणी परे, तेरा हित के काज । मैं को करुणा लायके, तेणे साधो शिवराज || ३१५॥ फोगट खेद न कीजिये, कर्म बंध बहु थाय । जाणी एम ममता तजी, धर्म करो सुखदाय ॥३१६॥ हवे निज कुटुंब मणी कहे. हितशिक्षा सुविचार | ममता मोह छोडाववा, एणीविघ करे उपगार ॥३१७॥ Jain Educationa International κε For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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