Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 97
________________ समाधि विचार सुणो कुटुंब परिवार सहु, कहुँ तुमकु हित लाय । एह मेरे आउ थिति पूरण भई, एह शरीर की भाय ॥ ३१८ ॥ तेणे कारण मुज उपरे, राग न घरना कोय | राग कर्या दुःख उपजे, गरज न सरणी जोय ॥ ३१६॥ थिति संसार की, पंखीका सेलाप । खीण- खीण मे उड़ी चले, क्या करना संताप ॥ ३२० ॥ कोण रह्या इहां थिर थई, रेहणहार नहीं कोय । प्रत्यक्ष दीसे इणीपरे, तुमे पण जाणो सोय ॥३२१ ॥ तुम सहु साथ सुँ, क्षमा भाव छे सार । आनंदमां तुम सहु रहो, धर्म उपर धरो प्यार ।। ३२२ ॥ सायर मां बूड़तां, ना कोई राखणहार धर्म एक प्रवहण समो, केवली भाखित सार ॥ ३२३ ॥ ए सेवो तुम चित घरी, जेम पामो सुख सार । दुरगति सवि दूरे टले, अनुक्रमे भव निस्तार ॥ ३२४ ॥ कुटुंब परीवार कुँ, समजावी अवदात | पछी पुत्र बोलाय के, भाखे एणी सुणो पुत्र शाणा तुमे, केहणे को ए परे बात ।। ३२५|| सार । मोह न करवो माहरो एह अथिर संसार ॥ ३२६ ॥ श्री जिनधर्म अंगीकरो, सेवो घरी बहु रागः । तुमकुं सुखदायक घणो, लहेशो महा सोभाग ॥ ३२७॥ व्यावहारिक संबंध थी, आणा मानो सार तेणे कारण तुमने कहुँ, घारो चित्त मकार ॥३२८॥ भव एम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only i www.jainelibrary.org

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