Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

View full book text
Previous | Next

Page 94
________________ समाधि विचार ८७ कबहीक रान. में जाय के. काष्ट - की भारी लेय। नगर में बेचन चालियो, मस्तके धरीने तेह ॥ २८५ ॥ करे मजुरी कोई दिन, -कबहीक मांगे भीख । कबहीक पर सेवा विषे, दक्ष थई धरे शीख ॥ २८६ ॥ कबहीक नाटकीयो हुई, रीझवे नगर के वृद । कबहीक वणिक बनी इसो, करे वेपार अमंद ॥ २८७ ।। कबहीक माल गुमाय के, रुदन करे बहु तेह।। कबहीक नफा पाय के, हास्य विनोद अछेह ॥ २८८ ॥ एणी विधि खेल करे घणा, पुत्र पुत्री परिवार । स्त्री आदिक साथे रहे, नगर मांही तेणी वार ॥ २८६ ॥ वैरी कटक आव्यु घणु', नासण लाग्या लोक । तब ते सुर एम चिंतवे, इहां होशे बहु शोक ।। २६० ।। एम विचार करी सवे, चाले आधी रात । एक पुत्र कु कांघ पर, बीजाकुँ ग्रहे हाथ ॥ २६१ ॥ घरवाखरको पोटलो, स्त्री लहे शिर परि तेह । ___पुत्रीकु आगल करी, एणी पेरे चाले तेह ॥ २६२ ॥ फाटे तूटे गोदडां, तिण की बांधी गांठ । शिर धरी ते आपणे, एणीविव तिहांथी नाठ ॥ २६३ ॥ मारग चालतां तेहने, वाट बटाऊ मले जेह । पूछे कीहां चाल्या तुमे, तब एम भाखे तेह ॥ २६४ ॥ नगर अमारु' घेरीयु, वयरी लश्कर आय । तीण कारण अमे नाशीया, लही कुटुंब समवाय ॥ २६५ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114