Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 93
________________ ८६ समाधि विचार मात तात तुमकु कही, ए सब साची बात । ते चित में घरज्यो सदा, सफल करो अवदात ॥ २७४ ॥ मुजकु तुम साथे हतो, एता दिन संबंध । ____ अब ते सविं पूरण हुओ, भावी भाव प्रबंध ॥ २७५ ।। विकल्प काइ तुमे मा करो, धर्म करो थइ धीर । मैं पण आतम सायना, करु निज मन करी थोर ॥ २७६ ।। आतम कारज साधबो. तुमकु उचित है सार । मोह न करो किसी कारणे, जिणथी दुःख अपार ॥ २७॥ सहज स्वरूप जे आपमो, ते छे आपणी पास । नहीं किसी सुजाचनां, नहीं परकी किसी आस ॥ २७८ ॥ आपना घर मांही अछे, महा अमूल्य निधान । ते संभालो शुभ परें, चिंतन करो सुविधान ॥ २७६ ॥ जन्म मरण को दुःख टले. जब निरखे निजरूप । अनुक्रमे अविचल पद लहे, प्रगटे सिद्ध सरूप ।। २८० ।। निज सरूप जाण्या बिना, जीव भमे संसार । जब निज रूप पिछाणीओ, तब लहे भव को पार ॥२८१॥ सकल पदारथ जगत के, जांगण देखणहार । प्रत्यक्ष भिन्न शरीर सु, ज्ञायक चेतन सार ।। २८२ ।। द्रष्टांत एक सुणो इहां, बारमा स्वर्ग को देव । ___ कोतुक मिश मध्यलोक में, आवी वसियो हेव ॥ २८३ ॥ कोइक रंक पुरुष तणी, शरीर परजाय में सोय । पैसी खेल करे किसा, ते देखो सह कोय ॥ २८४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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