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समाधि विचार
श्री जिन धरम पसाय थी, हुइ मुज निर्मल बुद्ध I आतम भली परें ओलखी, अब करू तेहनी शुद्ध ॥ २६३ ॥ तुमे पण एह अंगीकरो, श्री जिनवर को धर्म । निज आतम कुँ भली परें, जाणि लहो सवि मर्म ॥ २६४॥ और सबे भ्रमजाल है, दुःखदायक सबी साज ।
त्तिनकी ममता त्यागके, अब साधो निज काज ॥ २६५ ॥ भव भव मेली मूकीया; घन कुटुंब संजोग ।
वार अनंता अनुभव्या, सवि संजोग विजोग ॥ २६६ ॥ अज्ञानी ए आतमा, जिस जिस गति में जाय ।
ममतावश त्यां तेहवो, हुई रही बहु दुःख पाय ॥ २६७ ॥ महातम ए सवि मोह को, किण विध कह्यो न जाय ।
अनंतकाल एणी परे भमे, जन्म मरण दुःखदाय ॥ २६८ ॥ एम पुद्गल परजाय जेह, सर्व विनाशी जाण ।
चेतन अविनाशी सदा, ए ना लखे अजाण ॥ २६६ ॥ मिथ्या मोहने वश थई, झूठे को भी साच ।
क तिहां अचरज किंसो, भव मंडप को नाच || २७० ।। जिनको मोह गली गयो, भेदज्ञान लही सार ।
पुद्गल की परिणति विषे, नवि राचे निरधार ॥ २७१ ॥ भिन्न लखे आतम थकी, पुद्गल की परजाय ।
किमही चलाव्यो नवि चले, कशी परे ते न ठगाय ॥ २७२ ॥ भया यथारथ ज्ञान जब, जाणे निज परभाव । थिरता भई निज रूपमें, नवी रुचे तस परभाव ॥ २७३ ॥
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ปีนี
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