Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 90
________________ समावि विचार तेणे कारण मावित्र तुम, तजो मोह कुँ दूर । समता भाव अंगीकरी, धर्म करो थई शूर ॥ २४१ ।। पुद्गल रचना कारमी, विणसंता नहीं वार । ते ऊपर ममता किसी, धर्म करो जग सार ॥ २४२ ॥ झूठा एह संसार छ, तिणकुं जाणो सांच । भूल अनादि अज्ञान की, मोह करावे नाच ॥ २४३ ॥ करम संयोग आवी मले, थिति पाके सहु जाय। .. क्रोड़ जतन करीये कदा, पण खिन एक न रहाय ॥२४४।। स्वप्न सरीखा भोग छे, ऋद्धि चपला झबकार । डाभ अणी जल बिंदु संम, आयु अथिर संसार ।। २४५ ।। ते जाणो तमे शुभ परे, छंडो ममता जाल। आतमहित अंगोकरी, पाप करो विशराल ॥ २४६ ॥ राग दशा थी जोव कुँ, निबिड़ करम होय बंध । वली दुर्गति माँ जई पडे, जीहां दुःखना बहुधंध ॥ २४७ ॥ मुज उपर बहु मोह थी, मकुं अति दुःख थाय । . पग आयु पुरण थये, किसी ते न रखाय ॥ २४८ ॥ अल्प काल आयु तुमे, देखो दृष्टि निहाल । संबंध नहीं तुम मुज बिचे, मैं फिरता संसार ।। २४६ ।। पावो भाव संबंध थी, मैं मया तुमारा पुत्र । पंथो मेलाप तेगो परे, ए संसारह सूत्र ।। २५० ।। एणि विध सवि संसारी जीव, भटके चिहुं गति माही। कर्म संबंधे आत्री नले, पण न रहे यिर क्यांहो ।। २५.१ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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