Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 88
________________ समाधि विचार जे सरूप अरिहंत को, सिद्ध सरूप वली जेह । तेहवो आतम रूप छै, तिणमें नहीं संदेह ॥ २१६ ॥ चेतन द्रव्य साधरमता, तेणे करी एक सरूप । भेद भाव इणमें नहीं, एहवो चेतन भूप ॥ २२० ॥ धन्य जगत में तेह नर, जे रमे आत्म सरूप । निज सरूप जेणे नवि लह्य ते पडिया भव कूप ॥२२१॥ चेतन द्रव्य सभावथी, आतम सिद्ध समान । परजाये करी फेरजे, ते सवि कर्म विधान ॥ २२२ ॥ तेणे कारण अरिहंत का, द्रव्य गुण परजाय । ध्यान करता तेहy, आतम- निर्मल थाय ॥ २२३ ॥ परम गुणी परमातमां, तेहना ध्यान पसाय । भेद भाव दूरे टले, एम कहे त्रिभुवन राय ॥ २२४ ॥ जेह ध्यान अरिहंत को, सोही आतम ध्यान । फेर कछु इणमें नहीं, एहीज परम निधान ॥ २२५ ॥ एम विचार हिरदे घरी, सम्यक्दृष्टि जेह । . सावधान निज रूप में, मगन रहे नित्य तेह ॥ २२६ ।। आतम हित साधक पुरुष, सम्यकवंत सुजान । कहा विचार मन में करे, वरणवू सुणो गुण खाण ॥२२७॥ जेह कुटुंब परिवार सहु, बैठे है निज पास । तिनको मोह छोडाववा, एणी परे बोले भास ॥ २२८ ॥ एह शरीर आश्रित छे. तुम मुज मातने तात । तेणे कारण तुमकु कहुं, अब निसुणो एक बात ॥ २२६ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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