Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 87
________________ समाधि विचार निश्चे दृष्टि निहालतां, चिदानंद चिदरूप । चेतन द्रव्य साधरमता, पुरणानंद सरूप ॥ २०८ ।। प्रगट सिद्धता जेहनी, आलंबन लही तास । शरण करु महापुरुष को, जेम होय विकलप नाश ॥२०६।। अथवा पंच परमेष्टि ए, परम शरण मुज एह । वली जिनवाणी शरण छे, परम अमृत रस मेह ॥ २१० ॥ ज्ञानादिक आतमगुणा, रत्नत्रयी अभिराम । एह शरण मुज अतिभलं, जेहथी लहुँ शिवधाम ॥ २११ ॥ एम शरण दृढ धारके, थिर करवो परिणाम । ___ जब थिरता होशे चित्तमां, तब निज रूप विसराम ॥२१२॥ आतमरूप निहालतां, करता चिंतन तास । परमाणंद पद पामिए, सकल कर्म होय नाश ॥ २१३ ॥ परम ज्ञान जग एह छे, परम ध्यान पण एह । परम ब्रह्म परगट करे, परम ज्योति गुण गेह ।। २१४ ।। तिण कारण निज रूपमां, फिरी फिरो करी उपयोग । चिहुँ गति भ्रमण मिटाववा, एह सम नहीं कोई जोग॥२१५॥ निज सरूप उपयोगथी, फिरी चलित जो थाय । तो अरिहंत परमात्मा, सिद्ध प्रभु सुखदाय ॥ २१६ ॥ तीनुका आत्म सरूपका, अवलोकन करो सार । द्रव्य गुण पर्जव तेहना, चिंतवों चित्त मझार ।। २१७ ।। निर्मल गुण चिंतन करत, निर्मल होय उपयोग । तब फिरी निज सरूप का, ध्यान करो थिर जोग ॥२१८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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