Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 89
________________ समाघि विचार एतो दिन शरीर एह, होत तुमारा जेह । अब तुमारा नाही है, भली परे जाणो तेह ॥ २३० ।। अब एह शरीर का, आयुर्बल थिति जेह । पूरण भई अब नवी रहे, किणविधि राखी तेह ॥ २३१ ॥ थिति परमाणे ते रहे, अधिक न रहे केणी भांत। तो तस ममता छोडवी, ए समजण की बात ॥२३२॥ जो अब एह शरीर की, ममता करिये भाय । प्रीति राखिये तेहसु, दुःखदायक वह थाय ॥ २३३ ॥ सुर असुरों का देह ए, इन्द्रादिक को जेह । सब ही विनाशक एह छे, तो क्यु करवो नेह ॥ २३४ ॥ इंद्रादिक सुर महाबली, अतिशय शक्ति धरंत । थिति पुरण थये तेह पण, खीण एक कोहु न रहंत ॥२३५।। इद्रादिक सुर जेह छे, तिणकी ऋद्धि अपार । बत्रीश लाख विमान के, सवी सुर आणाकार ॥ २३६ ॥ तीन लख छत्रीश सहस छे, महा बलवंत जुजार । आतम रक्षक जेहना, अनमिष रहे हुशियार ॥ २३७ ।। सात कटक बलनो घणी, ऋद्धि तणो नहीं पार । सामानिक सुरवर प्रमुख, जिहां छे बहु विस्तार ॥ २३८॥ एहवा पराक्रम का धणी, जब थिति पूरण होय । काल पिशाच जब संग्रहे, राखी न सके कोय ॥ २३६ ॥ काल कृतांत के आगले, किसका चले न जोर । - मोहे मुंझया, प्राणिया, टलवंता करे सोर ॥ २४० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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