Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 86
________________ समाधि विचार ७६ निराकुल थिर होय के, ज्ञानवंत गुण जाण । हित शिख हृदय धरी तजे, आकुलता दुख खाण ॥ १६७ ।। आकुलता कोई कारणे, करवी नहीं लगार । ए संसार दुःख कारणो, इणकु दुर निवार ।। १६८ निश्चे शुद्ध सरूपका, चिंतन वारंवार । निज सरूा विचारणा, करवी चित्त मझार ॥ १६६ ।। निज सरूप को देखवो, अवलोकन पण तास । शुद्ध सरूप विचारवो, अंतर अनुभव भास ॥२०० ॥ अति थिरता उपयोग की, शुद्ध सरूप के मांही। , करतां भव दुःख सवि टले, निर्मलता लहे तांही ॥ २०१ ।। जेम निर्मल निज चेतना, अमल अखंड अनूप । गुण अनंतनो पिंड एह, सहजानंद स्वरूप ॥ २०२ ।। एह उपयोगे वरततां, थिर भावे लयलीन । निर्विकल्प रस अनुभवे, निज गुणमां होय पीन ॥ २०३ ।। जब लगे शुद्ध सरूप मैं, बरते थिर उपयोग । . तब लगे आतम ज्ञानमां, रमण करण को जोग ॥ २०४ ॥ जब निज जोग चलित होवे, तब करे एह विचार । - ए संसार अनित्य छे. इणमें नहीं कछु सार ।। २०५ ॥ दुःख अनंत की खाण यह, जनम मरण भय जोर । विषम व्याधि पूरित सदा, भव सायर चिहुं ओर ॥२०६॥ ए सरूप संसार को, जाणी त्रिभुवन नाथ । राज ऋद्धि सब छोडके, चलवे शिवपुर साथ ॥ २०७ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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