Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 83
________________ समाधि विचार निःसंदेह चित्त होय के, तत्वातत्व सरूप। भेद यथार्थ पायके, प्रगट करु निज रूप ।। १६४ ।। रागद्वेष दोय दोष ए, अष्ट करम जड़ एह । हेतु एह संसार का, तिणको करवो छेह ॥ १६५ ।। शीघ्रपणे जड मूलथी, रागद्वेष को नाश । करके श्रीजिनचंन्द्र को, निर शुद्ध विलाश ॥ १६६ ॥ परम दयाल आणंदमय केवल श्रीसंयुक्त । त्रिभुवनमें सूरज परें, मिथ्या तिमिर हरंत ॥ १६७ ॥ एहवा प्रभु' देख के, रोम रोम उलसंत । ___ वचन सुधारस श्रवणते, हृदय विवेक वर्धत ॥ १६८ ।। श्री जिन दरिशन जोगथी, वाणी गंग प्रवाह । तिण थी पातिक मल सवे, धोइस अति उछाह ॥ १६९।। पवित्र थई जिन देव के, पासे ले दीख । दुर्धर तप अंगीकरु, ग्रहण आसेवन शीख ॥ १७० ॥ चरण धरम परभावथी, होशे शुध उपयोग । शुद्धातम की रमणता, अद्भुत अनुभव जोग ॥ १७१ ॥ अनुभव अमृत पान में, आतम भये लयलीन । क्षपक श्रेणी के सनमुखे, चढ़ण प्रयाण ते कोन ॥ १७२ ॥ आरोहण करी श्रेणी कु, घाती करम को नाश । धनघाती छेदी करी, केवलज्ञान प्रकाश ॥ १७३ ॥ एक समय त्रणकाल के, सकल पदारथ जेह । जाणे देखे तत्वथी, सादि अनंत अछेह ॥ १७४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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