Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 60
________________ सर्व पापादिक आलोयणा स्तवन दुषमकाले दोहिलो जी, सुधो गुरु संयोग । परमारथ प्रीछे नहीं जी, गडरप्रवाही लोग ॥ कृ० ६ ॥ तिण तुझ आगल आपणा जी, पाप आलोऊ आज। माय बाप आगल बोलता जी, बालक केही लाज ॥कृ०७॥ जिनधर्म २ सह कहेजी, थाप अपनी बात । समाचारी जुई जुईजी, संसय पडे मिथ्यात ॥ कृ० ८ ।। जाण अजाण पणे करीजी, बोल्यो उत्सूत्र बोल । रतने काग उडावतां जी, हार्यों जनम निटोल ॥ कृ०६॥ भगवंत भाष्योते किहांजी, किहां मुझ करणी एह। गज पाखर खर किम सहैजी, सबल विमासण तेह ॥कृ०१०।। आप परुप्यु आकरोजी, जाणे लोक महत । पिण न कर परमादियोजी, मासाहस दृष्टांत।। कृ० ११ ॥ काल अनंते मैं लह्याजी, तीन रतन श्रीकार । पिण परमादे पाडियाजी, किहां जइ करु पुकार ||कृ० १२।। जाणु उत्कृष्टी करुजी, उद्यत करु विहार । धीरज जीव धरे नहीं जी, पोते बहु संसार ।। कृ० १३ ।। सहज पड्यो मुझ आकरोजी, न गमें रुडी बात। परनिंदा करता थकांजी, जाये दिन में रात ॥ कृ० १४॥ किरिया करतां दोहिलीजी, आलस आणे जीव . धर्म पखे धंधे पड्योजी, नरके करस्यै रीव ॥ कृ० १५ ॥ अगहुँता गुण को कहेजी, तो हरखं निश दीश । को हित सीख भली कहैजी, तो मन आणुरीश कृ०१६।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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