Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 74
________________ समाधि विचार इण विध एह संसार में, सवि कुटुम्ब परिवार । संबंधे सहु आवी मिले, थिती पाके रहे न केवार ।। ६५ ॥ किसका बेटा बाप है, किसका मात ने भ्रात । किसका पति किसकी प्रिया, किसकी न्यात ने जात ॥६६॥ किसका मन्दिर मालीया, राज्य ऋद्धि परिवार । क्षीणविनासी ए सहु, एम निश्चे चित्तधार ॥ ६७ ॥ इंद्रजाल एम ए सहु, जेसो सुपन को राज । जैसी माया भूत की, तैसो सकल ए साथ ॥ ६८ ॥ मोह मदिराना पान थी, विकल भया जे जीव । तिनकु अति रमणिक लगे, मगन रहे सदैव ॥ ६६ ॥ मिथ्यामतिना जोर थी, नवि समझे चितमाह। क्रोड़ जतन करे बापड़ो, ए रहेवे को नांह ।। ७० ॥ एम जाणी त्रण लोक मां, जे पुद्गल पर्याय । तिनकी हुँ ममता तजु, धरु समता चितलाय ।। ७१ ।। एह शरीर नहीं माहरु, एतो पुद्गल खंध । हु तो चेतन द्रव्य छु', चिदानंद सुख कंद ॥ ७२ ॥ एह शरीर का नाश थी, मुझको नहीं कांइ खेद । - हु तो अविनाशी मदा, अविचल अकल अभेद ॥ ७३ ।। देखो मोह स्वभाव थी, प्रत्यक्ष झूठो जेह । अति ममता धरी चित्तमां, राखण चाहे तेह ॥ ७४ ।। पण ते राखो नवि रहे, चंचल जेह स्वभाव । - दुःखदायी ए भव विष, परभव अति दुःखदाय ।। ७५ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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