Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

View full book text
Previous | Next

Page 73
________________ समाधि विचार जब थिती एह शरीर को, काले पोंचे होय खीण । तब झूरे अति दुःख भरे; कर विलाप एम दीन ॥ ५४ ॥ हा हा पुत्र तु क्यां गयो, मूको ए सहु साथ। हा हा पति तुम क्यां गया, मुजकुमूको अनाथ ॥ ५५ ॥ हा पिता तुम किहां गया, अम कुण करशे सार । हा बंधव तुम किहां गया, शून्य तुम विण संसार ॥५६॥ हा ! माता तु किहां गई, अम घरनी रखवाल । हा बेनी तु किहां गई, रोवत मूकी बाल ॥ ५७ ॥ मोह विकल एम जीवड़ा, अज्ञाने करी अंध । ममतावश गणी माहरा, करे क्लेशना धंध ॥ ५८ ॥ इणविध शोक संताप करी, अतिशे क्लेश परिणाम । . करमबंध बहुविध करे, ना लहे खिण विशराम ।। ५६ ।। ज्ञानवंत उत्तम जना, उनका एह विचार । जगमां कोई किसी का नहीं, संजोगिक सहुधार ॥ ६० ॥ भवमा भमतां प्राणिआ, करे अनेक संबंध । रागद्वष परिणति थकी, बहुविध बांधे बंध ॥ ६१ ॥ वैर विरोध बहुविध करे, तिम प्रीत परस्पर होय । . संबंधे आवी मले, भव भव के बिच सोय ॥ ६२ ॥ बन के बीच एक तरु विषे, संध्या समय जब होय । दश दिशथी आवी मिले, पंखी अनेक ते जोय ॥ ६३ ॥ रात्रे तिहां वासो वसे, सवि पंखी समुदाय । प्रातःकाल उठी चले, दशे दिशे तेहु जाय ॥ ६४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114