Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 75
________________ ६८ समाधि विचार ऐसा स्वभाव जाणी करी, मुजकु कछु नहीं खेद | शरीर एह असार का, इणविध लहे सहु भेद ॥ ७६ ॥ गलो हुओ छार । पण मुजको नहीं प्यार ।। ७७ ।। मोह अंधार | चिदानंद सुखकार ॥ ७८ ॥ सडो पडो विध्वंस हो, जलो अथवा थिर थइने रहो, ज्ञानदृष्टि प्रगट भई, मिट गया ज्ञान सरूपी आतमा, निज सरूप निरधारके, मैं भया इनमें लीन । काल का भयमुचित नहीं, क्या कर सके ए दीन ॥ ७६ ॥ इनका बल पुद्गल विषे, मोपर चले न कांय । मैं सदा थिर शास्वता, अक्षय आतमराय ॥ ८० ॥ आत्मज्ञान विचारतां, प्रगट्यो सहज स्वभाव । अनुभव अमृत कुंड में, रमण करु लही वाव ॥ ८१ ॥ आत्म अनुभव ज्ञानमां, मगन भया अंतरंग | विकल्प सवि दूरे गया, निर्विकल्प रस रंग ॥ ८२ ॥ आतम सत्ता एकता, प्रगट्यां सहज स्वरूप । ते सुख त्रण जगमें नहीं, चिदानंद चिदरूप ॥ ८३ ॥ सहजानन्द सहज सुख, मगन रहुं निशदीश । पुद्गल परिचय त्याग के, मैं भया निज गुण ईश ॥ ८४ ॥ देखो महिमा एह को अद्भुत अगम अनूप । " तीन लोक की वस्तु का, भासे सकल सरूप ॥ ८५ ॥ ज्ञेय वस्तु जाणे सहु, ज्ञान गुणे करी तेह | आप रहे निज भाव में, नहीं विकल्प की रेह ॥ ८६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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