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समाधि विचार
इनमें टोटा नहीं कछु, एह केणे की वात ।
तिनसुं उत्तर अब कहुं, सुणो सज्जन भलीभाँत ॥ १३१ ॥ तुमने जो बातां कही, अम भी जाणुं सर्व ।
एह मनुष्य परजाय से, गुण बहु होते निगर्व ॥ १३२ ॥ शुद्ध उपयोग साधन बने, और ज्ञान अभ्यास |
ज्ञान वैराग्य की वृद्धि को, एहि निमित्त है खास ॥१३३॥ इत्यादिक अनेक गुण, प्राप्ति इणथी होय ।
अन्य परजाये एहवा, गुण बहु दुर्लभ जोय ॥ १३४॥ पण एह विचार में, कहे को ए मर्म । एह शरीर रहो सुखे, जो रहे संजम धर्म ॥ १३५ ॥ अपना संजमादिक गुण, रखना एहीज सार ।
ते संयुक्त काया रहे, तिनमें कोन असार ।। १३६ ।। मोकु एह शरीर सुं वेर भावतो नाहीं ।
एम करतां जो नवी रहे, गुण रखना लेउ छांही ॥१३७॥ विधन रहित गुण राखवा, तिण कारण सुण मित्त ।
स्नेह शरीर को छांडिये, एह विचार पवित्त ॥ १३८ ॥ एह शरीर के कारणे, जो होय गुण का नाश ।
एह कदापी ना कीजिये, तुमकु कहुं शुभ भारा ॥१३६॥ एह संबंध के ऊपरे, सुणो सुगुण दृष्टान्त ।
जिथी तुम मन के विषे, गुण बहुमान होय संत ॥१४०॥ कोइ विदेशी वणिक सुत, फरतां भूतल मांही ।
रत्नद्वीप आवी चड्यो, नीरखी हरख्यो तांही ॥ १४१ ॥
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