Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 78
________________ समाधि विचार एण विध आप सरूप की, लखी महिमा अतिसार । मगन भया निज रूपमें, सब पुद्गल परिहार ॥ १०६ ॥ तरंग अनेक । सरूप की टेक ॥ ११० ॥ तरंग | अपनी परिणति आदरी, निर्मल ज्ञान रमण करु निज रूप में, अब नहीं पुद्गल रंग ॥ १११ ॥ पुद्गल पिंड शरीर ए, मैं हुँ चेतन राय । मैं अविनाशी एह तो, क्षिण में विणसी जाय ॥ ११२ ॥ अन्य सभावे परिणमें, विणसंता नहीं वार । उदधि अनन्त गुणे भर्यो, ज्ञान मर्यादा मूके नहीं, निज ७१ तिणसुँ मुज ममता किसी, पाडोसी व्यवहार ॥ ११३ ॥ इण की थिती पूरी भई, रहेणे को नहीं आश । वरण रस गंध फरस सहु, गलन लगा चिहुं पास ॥ ११४ ॥ एह शरीर की ऊपरे, राग द्वेष मुज नांहि । राग द्वेष की परिणतें, भमिये चिहुं गति मांहि ॥ ११५ ।। राग द्वेष परिणाम थी, करम बंध बहु होय । परभव दुखदायक घणा, नरकादिक गति जोय ॥ ११६ ॥ मोहे मुच्छित प्राणी कुँ, राग द्वेष अति थाय । अहंकार मकार पण, तिण थी शुध बुध जाय ॥ ११७ ॥ महिमा मोह अज्ञान थी, विकल भया सवि जीव । पुद्गलिक वस्तु विषे, ममता धरें सदैव ॥ ११८ ॥ परमे निजपणु मान के, निविड़ ममता चित धार । विकल दशा वरते सदा, विकल्पनो नहीं पार ॥ ११६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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