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समाधि विचार
ऐसा आतम रूपमें, मैं भया इणविध लीन ।
स्वाधीन ए सुख छोड़ के, वंछु न पर आधीन ॥ ८७ ॥ एम जाणी निज रूप में, रहुं सदा हुशियार।
- बाधा पीड़ा नहीं कछु, आतम अनुभव सार ॥ ८८ ।। ज्ञान रसायण पाय के, मिट गई पुद्गल आश ।
अचल अखंड सुखमें रमु, पुरणानंद प्रकाश ।। ८६ ॥ भव उदधि महा भय करु, दुःख जल अगम अपार ।
मोह मूर्छित प्राणी को, सुख भासे अतिसार ॥ १० ॥ असंख्य प्रदेशी आतमा, निश्चे लोक प्रमाण ।
व्यवहारे देह मात्र छे, संकोच थकी मन आण ॥ ६१ ॥ सुख वीरज ज्ञानादि गुण, सर्वागे प्रतिपूर ।
जैसे लूण साकर डली, सर्वागे रस भूर ॥ १२ ॥ जैसे कंचुक त्याग थी, विणसत नाहीं भुजंग।
देह त्याग थी जीव पण, तसे रहत अभंग ॥ १३ ॥ एम विवेक हृदये धरी, जाणी शास्वत रूप ।
थिर करी हुओ निज रूपमें, तजी विकल्प भ्रमकूप ॥६४|| सुखमय चेतन पिंड है, सुख में रहे सदैव ।
निर्मलता निज रूपकी, निरखे खिण २ जीव ॥ ५ ॥ निर्मल जेम आकाशकु, लगे न किण विध रंग।
छेद भेद हुये नहीं, सदा रहे ते अभंग ।। ६२ ॥ तैसे चेतन द्रव्यमें, इनको कबहु न नाश ।
चेतन ज्ञानानंदमय, जड़, भावी आकाश ।। ६७ ॥
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