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समाधि विचार
दर्पण निर्मल के विषे, सब वस्तु प्रतिभास।
तिम निर्मल चेतन विषे, सब वस्तु प्रकाश ।। ६८ ॥ एण अवसर एम जाण के, में भया अति सावधान ।
पुद्गल ममता छांड के, धरु शुद्ध आतम ध्यान ॥ ६६ ॥ आतम ज्ञान की मगनता, एहीज साधन मूल ।
एम जाणी निज रूप में, करु रमण अनुकूल ॥ १०० ।। निर्मलता निज रूप की, किमही कही न जाय ।
तीन लोक का भाव सब, झलके जिनमें आय ॥ १०१ ।। ऐसा मेरा सहज रूप, जिनवाणी अनुसार ।
आतम ज्ञाने पाय के, अनुभव में एकतार ।। १०२ ॥ आतम अनुभव ज्ञान जे, तेहीज मोक्ष सरूप ।
ते छंडी पुद्गल दशा, कुण ग्रहे भवकूप ॥ १०३ ।। आतम अनुभव ज्ञान ते, दुविधा गई सब दूर ।
तब थिर थइ निज रूप की, महिमा कहुँ भरपूर ।। १०४ ।। शांत सुधारस कुंड ए, गुण रत्नों की खान ।
अनन्त ऋद्धि आवास ए. शिव मन्दिर सोपान ।। १०५ ।। परम देव पण एह छे, परम गुरु पण एह। ।
परम धर्म प्रकाश को, परम तत्व गुण गेह ॥ १०६ ।। ऐसो चेतन आपको, गुण अनन्त भंडार।
अपनी महिमा विराजतो, सदा सरूप आधार ॥ १०७॥ चिदरुपी चिन्मय सदा, चिदानन्द भगवान ।
शिवशंकर स्वयंभू नमु, परम ब्रह्म विज्ञान ॥ १०८ ।।
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