Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 79
________________ समाधि विचार मैं मेरा ए भाव थी, फिर्यो अनंतो काल । .... जिनवाणी चित परिणमें, छुटे मोह जंजाल ॥ १२० ।। मोह विकल एह जीवकुँ, पुद्गल मोह अपार । पण इतनी समजे नहीं, इनमें कछु नहीं सार ।। १२१ ।। इच्छाथी नवी संपजे, कल्प विपत ना जाय। पण अज्ञानी जीवकुँ, विकल्प अतिशय थाय ॥ १२२ ॥ एम विकल्प करे घणा, ममता अंध अजाण । मैं तो जिन वचने करी, प्रथम थकी हुओ जाण ॥ १२३ ।। मैं शुद्धातम द्रव्य हुँ, ए सब पुद्गल भाव । सडन पडन विध्वंसणो, इसका एह स्वभाव ॥ १२४ ।। पुद्गल रचना कारमी, विणसंता नहीं वार । ___ एम जाणी ममता तजी, समता हुँ मुज प्यार ॥ १२५ ॥ जननी मोह अंधारकी, माया रजनी कूर। ___ भव दुःख की ए खाण है, इणसँ रहीए दूर ।। १२६ ।। एम जाणी निज रूप में, रहुं सदा सुखवास । और सब ए भवजाल है, इणसँ भया उदास ॥ १२७ ॥ एण अवसर कोइ आयके, मुजफु कहे विचार । काया तुम कछु नहीं, एह बात निरधार ॥ १२८ ।। पण एह शरीर निमित्त है, मनुष्य गति के मांह। _ शुद्ध उपयोग की साधना, एणसु बने उछांह ॥ १२६ ।। एह उपगार चित्त आण के, इनका रक्षण काज । उद्यम करना उचित है, एह शरीर के साज ॥ १३० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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