Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 71
________________ समाधि विचार विनाशिक पुद्गल दशा, खिण भंगुर सभाव । मैं अविनाशी अनन्त हैं, शुद्ध सदा थिर भाव ॥ ३२ ॥ निज सरूप जाणे इसो, समकित दृष्टि जीव । मरण तणो भय नहीं मने, साध्य सदा छे शीव ॥ ३३ ॥ ऐसे ज्ञानी पुरुष के, मरण निकट जब होय । तब विचार अंतर गमे, करे ते लखिये सोय ॥ ३४ ॥ थिरता चित्त में लाय के, भावना भावे एम । ६४ अथिर संसार ए कारमो, इणसु मुज नहीं प्रेम ॥ ३५ ॥ एह शरीर शिथिल हुआ, शक्ति हुई सब खीण | मरण नजीक अब जाणिये, तेणे नहिं होणां दीन ॥ ३६ ॥ सावधान सब बात में हुई करु आतम काज । " काल कृतांतकुं जीत के, वेगे लहुं शिवराज ॥ ३७ ॥ रण भंभा श्रवणे सुणी, सुभट वीर जे होय । ते ततखिण रण में चडे, शत्रु जीते सोय ॥ ३८ ॥ एम विचार हइडे घरी, मूकी सब जंजाल । प्रथम कुटुंब परिवार कुं, समझावे सुरसाल ॥ ३६ ॥ सुणो कुटुम्ब परिवार सहु, तुमकु कहुं विचित्र । एह शरीर पुद्गल तणो, कैसो भयो चरित्र ॥ ४० ॥ देखत ही उत्पन्न भया, देखत विलय ते होय । तिण कारण ए शरीर का, ममत न करणा कोय ।। ४१ ।। एह संसार असार में, भमतां वार अनन्त नव नव भव धारण कर्या, शरीर अनन्तानन्त ॥ ४२ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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