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समाधि विचार गर्जारव करे एहवो, महा भयंकर घोर ।
मानु मास आषाड को, इन्द्र धडुक्यो जोर ॥ २१ ॥ शब्द सुणो केशरी तणो, शत्रुको समुदाय ।
हस्ति तुरंगम पायदल, त्रास लहे कंपाय ॥ २२ ।। शत्रु हृदयमा संक्रम्यो, सिंह तणो आकार ।
तेणे भयभीत थया सहु, डग ना भरे लगार ॥ २३ ॥ सिंह पराक्रम सहन कु, समरथ नहिं तिलमात्र ।
जीतण की आशा गई, शिथिल भयां सवि गात्र ॥ २४ ॥ सम्यग्दृष्टि सिंह छे, शत्रु मोहादिक आठ ।
- अष्ट कर्म की वर्गणा, ते सेनानो ठाठ ॥ २५॥ दुःखदायक ए सर्वदा, मरण समय सुविशेष ।
जोर करे अति जालमी, शुद्धि न रहे लवलेश ।। २६ ॥ करमों के अनुसार एम, जाणो समकितवंत ।।
कायरता दूरे करे, धीरज धरे अति संत ॥ २७॥ समकितदृष्टि जीवकू, सदा स्वरूप को भास ।
" जड़ पुद्गल परिचय थकी, न्यारो सदा सुखवास ॥१८॥ निश्चे दृष्टि निहालतां, कर्म कलंक ना कोय ।
गुण अनन्त को पिंड ए, परमाणंद मय होय ॥ २६ ॥ अमूर्तिक चेतन द्रव्य ए, लखे आपकू आप ।
ज्ञान दशा प्रगट भई, मिट्यो भरम को ताप ॥ ३० ॥ आत्मज्ञान की मगनता, तिन में होय लयलीन ।
रंजत नहीं परद्रव्य में, निज गुण में होय पीन ॥ ३१ ॥
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