Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 72
________________ समाधि विचार जन्म मरण दोय साथ छे, छिण २ मरण ते होय। मोह विकल ए जीवने, मालम ना पडे कोय ॥ ४३ ॥ मैं तो ज्ञानदृष्टि करु, जाणु सकल सरूप । पाडोशी मैं एहका, नहीं माहरु ए रूप ।। ४४ ।। मैं तो चेतन द्रव्य हुँ, चिदानंद मुज रूप । . ए तो पुद्गल पिंड है, भमर जाल अंधकूप ।। ४५ ॥ सहण पड़ण विद्धसणो, एह पुद्गल को धर्म। थिती पाके खिण नवी रहे, जाणो एहोज मर्म ॥ ४६ ॥ अनन्त परमाणु मिली करी, भया शरीर परजाय । _वरणादिक बहु विध मिल्या, काले विखरी जाय ॥ ४७ ॥ पुद्गल मोहित जीवकु. अनुपम भासे एह । पण जे तत्ववेदी होय, तिनकु नहीं कुछ नेह ॥ ४८ ॥ उपनी वस्तु कारमी, न रहे ते थिर वास । एम जाणी उत्तम जना, घरे, न पुद्गल आस ॥ ४६ ॥ मोह तजी समता भजी, जाणु वस्तु स्वरूप । पुद्गल राग न कीजिये, नवि पडिये भवकूप ॥ ५० ॥ वस्तु स्वभावे नीपजे, काले विणसी जाय । करता भोक्ता को नहीं, उपचारे कहेवाय ॥ ५१ ॥ तेह कारण एह शरीर सु, संबंध न माहरे कोय। मैं न्यारा एह थी सदा, ए पण न्यारा जोय ॥ ५२ ॥ एह जगत में प्राणिआ, भरमे भूल्या जेह। जाणी काया आपणी, ममत धरे अति तेह ॥ ५३ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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