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समाधि विचार
जे परिणाम कषायना, ते उपसम जब थाय ।
तेह सरूप समाधिनुं, ए छे परम उपाय ॥ १० ॥ सम्यग्दृष्टि जीवने, तेहनो सहज स्वभाव ।
__ मरण समाधि वंछे सदा, थिर करी आतम भाव ॥११॥ अरुचि भई असमाधि की, सहज समाधि सुँ प्रीत ।
दिन दिन तेहनी चाहना, वरते एहीज रीत ॥ १२ ॥ काल अनादि अभ्यास थी, परिणति विषय कषाय ।
तेहनी शांति जब हुए, तेह समाधि कहाय ॥ १३ ॥ अवसर निकट मरण तणो, जब जाणे मतिवंत ।
तब विशेष साधन भणी, उलसित चित्त अत्यंत ॥१४॥ जैसे शार्दूल सिंह को, पुरुष कहे कोई जाय।
सूते क्युं निर्भय हुई, खबर कहुं सुखदाय ॥ १५ ॥ शत्रु की फोजां घणी, आवे छे अति जोर।
तुम घेरण के कारणे, करती अति घणो शोर ।। १६ ॥ कित्तेक तुम से दूर हैं, ते वैरी की फोज ।
गुफा थको निकसो तुरंत, करो संग्राम की मोज ॥१७॥ तुम आगे सब रंक है, शत्रु को परिवार।
प्राक्रम दाखो आपलूं, तुम बल शक्ति अपार ।। १८ ॥ महंत पुरुष की रीत ए, शत्रु आवे जांही।
तब ततखीण सन्मुख हुई, जोत लिये खिणमाही ॥१६॥ वचन सुणी ते पुरुष का, उठ्यो शार्दूल सिंह।
निकस्यो बाहिर ततखिणे, मानें अकल अबीह ॥ २० ॥
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