Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 61
________________ ५४. सर्व पापादिक आलोयणा स्तवन वाद भणी विद्या भणोजी, पर रंजण उपदेश । मन संवेग धर्यो नहीं जी, किम संसार तरेश ॥ कृ० १७ ॥ सूत्र सिद्धांत बखांणतांजी, सुणतां करम विपाक । खिण एक मन मांहिं ऊपजी, मुझ मरकट बैराग ॥१८॥ त्रिविव त्रिविध करी ऊचरुंजी, भगवंत तुम्ह हजूर । बार बार भांनँ वलीजी, छूटकवारो दूर ॥ कृ० १६ ॥ आप काज सुख राचतांजी, कीधा आरंभ कोड़। जयणा न करी जीवनीजी, देव दया पर छोड़ ।। कृ० २० ॥ वचन दोष व्यापक कह्याजी, दाख्या अनरथ दंड। कूड कपट बहु केलवीजी, व्रत कीधां शत खंड । कृ० २१ ॥ अण दीधो लीजै त्रिणोजी, तोही अदत्तादान। . ते दूषण लागा घणाजी, गिणतां नावै ग्यान ॥ कृ०.२२ ॥ चंचल जीव रहै नहींजी, राचै रमणी रूप। काम विटंबण सी कहुँजी, ते तू जाने स्वरूप ॥कृ०२३॥ माया ममता में पड्योजी, कीधो अधिको लोभ । परिग्रह मेल्यो कारमोजी, न चढी संयम शोभ । कृ० २४ ॥ लागा मुझ ने लालचैजी, रात्रीभोजन दोष। मैं मन मूक्यो माहरोजी, न धर्यो धरम संतोष ॥ कृ०२५ ॥ इणभव परभव दूहव्याजी, जीव चौराशी लाख । ते मुझ मिच्छामि दुक्कडंजी, भगवंत तोरी साख ॥१०२६॥ करमादान पनरै कह्याजी, प्रगट अढारै पाप । जे मैं कीधा ते सहजी, बगश २ माई बाप ॥ कृ० २७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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