Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar
View full book text
________________
श्री वैकुंठ पंथ
जोगी जंगम घणा थायशे, दुःखिया इण संसार।।
खीचडी खाये खांतशु, साचो जिन धर्म सार ॥ मार्ग ३७ ॥ खांडानी धारे चालवु, सुणजो ए सार ।
परस्त्री मात करी जाणवी, लोभ न करवो लगार मार्ग०३८॥ कनक कामिनी जेणे परिहरी, ते तो कर्म थी छूटा।
भीखारी मंगे घणां, बीजा खोचड़ खूटा ।। मार्ग० ३६ ॥ पाथरणे धरती भली, ओढण भलु आकाश ।
शणगारे शीयल पहेरवु, तेहने मुक्ति नो वास ॥ मार्ग ४. ।। उपवास आंबील नित करे, नित अरिहंत ध्यान ।
काम क्रोव लोभ परिहरे, तेहने मुक्ति निधान ॥ मार्ग ४१ ॥ मनुष्य जन्म पामी करी, जे करशे धर्म।
सुख सघलां ए संपजे, छूटे सर्वे कर्म । मार्ग० ४२ ॥ धर्मे धन्नज पामीये, धर्म सवि सुख थाय।
अरिहंत नाम आराधिये, पाप परले जाय ॥ मार्ग० ४३ ॥ खाट पथरणे सुई रहो, खाओ नित्य खाणां ।
एक अरिहंत नाम संभारतां, क्यां बेसे तुझ नाणां मार्ग०४४। मनसा वाचा कायथी, लीजे भगवंत नाम ।
सुख स्वर्गनां संपजे, सीझे वंछित काम ॥ मार्ग० ४५ ॥ खातां पीतां खरचतां हइड़ा म करे खलखंच ।.
काया माया कारमी, जोवन दहाड़ा पंच ॥ मार्ग० ४६ ॥ केही सुचंगी बाढीयो, केही सुचंगी नार ।
केते माटी होई रही, केते भये अंगार ॥ मार्ग० ४७ ॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114