Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 16
________________ आत्मशिक्षाभावना अक्षत्र नक्षत्र भव अनंतनां, छुटीजे सवि कर्म ॥ ८१ ॥ जिम आऊखा दिन गुणी, वरस मास घडि मान । चेति सके तो चेतजे, जो होये होयडे शान ॥ १२ ॥ धन कारण तु जलफले, धर्म करि थाये सूर।। अनंत भवनां पाप सवि. क्षण मां जाये दूर ॥८३॥ जे रचना दिण ऊगती, ते रचना नहीं सांझ । इस्यु जाणी रे जीवडा, चेतहि हियडा मांझ ॥ ८४ ॥ आशा अंबर जेवडी, मरवु पगला हेठ। धर्म विना जे दिन गया, तिण दिन कीधी वेठ ॥ ८५ ।। रे जीव सुण तु बापड़ा, म करिश गर्व गवार । मूल स्वरूप देखी करी, निज जीवशुतु विचार ॥ ८६ ॥ कर्मे को नवि छुटिये, इन्द्रचंद्र नर देव । राय राणा मंडलिक बली, अवर नर ज कुण हेव ॥ ८७॥ वरस दिवस घर घर भम्या, आदिनाथ भगवंत । कर्म को दुख तिणे लह्यां, जे जगमां बलवंत ॥८८ ॥ पास जिमंद प्रतिमा रही, उपसर्ग कियो सुरिंद। ते उपसर्ग ने टालियो, पदमावती धरणीन्द्र ॥ ८६ ॥ काने खीला घालिया, चरणे रांधी खीर । तेहुने कर्मे नडयों, चौवीशमा श्री वीर ।। १० ।। मल्ली माया तप करी, पाम्या स्त्री अवतार । सुरपति कोड़ी सेवा करी, कर्मनो एह प्रकार ॥ ६१ ॥ पुरुष विषे चूामणि, भरत नरेसर राय । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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