Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar
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आत्मशिक्षामावना
कर्म सुमट जुओ एकले, सबी मनाव्या हार ॥१४७॥ कर्म सुभट विषम विकट, ते वश कियो न जाय। जे नर एहने वश करे, हूँ वंदू तस पाय ॥१४८॥ इम जाणीने कीजिये, जिम आतम सुख थाय । पर जीव दुःख न दीजिये, इम बोल्या जिनराय ॥१४॥ दान शियल तप भावना, धर्म नां चार ए मूल । पर अवगुण बोलत सही, ए सउ थाए धूल ॥१५०।। दान सुपात्रे दीजिये, तस पुण्यनो नहीं पार । सुख संपति लहिये घणी, मणि मोती भंडार ॥१५१।। धन्नो सारथपति जुवो, घृत वोहराव्यु मुनि हाथ । दानप्रभावे जीवडो, प्रथम हुवो आदिनाथ ॥१५२॥ दान दियो धन सारथी, आनंद हर्ष अपार । नेमनाथ जिनवर हुवा, यादव कुल सिणगार ॥१५३॥ कलथीकेरा रोटला, दीधुं मुनिवर दान । वासुपूज्य भव पाछले, जिनपद लह्य निदान ॥१५४॥ मुनि भूल्यो एक मारगे, वोहराव्या तस आहार । साथ मेल्यो ते सारथी, ते वीर जगदाधार ॥१५५।। सुलसा रेवती रंगसुं, दान दियो महावीर । तीर्थकर पद पामशे, लहेशे ते भवतीर ॥१५॥ दाने भोगज पामिये, शियले होय सौभाग। तप करि कर्मज टालिये, भावना शिवसुख माग ॥१५७॥ भावना छे भव नाशिनी, जे आपे भवपार ।
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