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श्रावक के तीन मनोरथ है । सुमति एवं सुबुद्धिरूप सौभाग्य का नाश करने वाला है । तप संयम रूप धन को लूटने वाला है। लोभ क्लेश रूप समुद्र को बढ़ाने वाला है । जन्म जरा और मरण का करने वाला है। कपट का भंडार, मिथ्यादर्शन रूप शल्य युक्त, मोक्ष मार्ग का विघ्नकारी, बुरे कर्म विपाक का देने वाला
और अनंत संसार को बढ़ाने वाला महापापी है। पांच इंद्री के विषय रूप बैरी की पुष्टि करने वाला, नाना प्रकार की चिंता शोक और खेद को करने वाला है । संसार रूपी गहरी वल्लि का सिंचन करने वाला है। कूड कपट एवं क्लेश का मानो घर है । खेद उत्पन्न करने वाला मन्द बुद्धि का दरिया है । उत्तम साधु निग्रंथों ने भी इसकी निंदा की है । तीनों लोक में तमाम जीवों को इसके सदृश कठोर दुःख देने वाला दूसरा कोई नहीं है । मोहरूपी पाश का प्रतिबन्धक है। इस लोक और परलोक के सुख का नाश करने वाला है। पांच आश्रवका मानो घर है और अनन्त दारुण दुख एवं भय को देने वाला है। सावध व्यापार कुवाणिज्य कुकर्मादान का कराने वाला है-अध्रुव, अनित्य, अशास्वता, असार, अत्राण, अशरण ऐसे जो आरम्भ और परिग्रह हैं उनको मैं कब छोडूंगा वह दिन मेरे लिये धन्य है कि जिस रोज मैं इनको छोडूं ।
दूसरा मनोरथ - मैं अनागारी होकर दश प्रकार से यति धर्मधारी, नव प्रकार से विशुद्ध ब्रह्मचारी, सर्व सावध परिहारी, साधु के सत्तावीस गुण युक्त, पांच समिति तीन गुप्ति से विशुद्ध विहारी, मोटे अभिग्रह का धारी, बयांलोस दोष रहित विशुद्ध आहारी, सत्तरा प्रकार से संयमवारी, बारा
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