Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 41
________________ श्री आलोयण स्तवन कारज विण परघर जाई रे, बैठो परसंग पराई रे। मुनिवर ने परघर वरर्यो रे, मन माहीं ते न विचार्यो रे ॥५१॥ इम पातिक जाणी दाख्या रे, 'छाना में कोई न राख्या रे । कहेंतां जे चिन्ता नावे रे, जे जीव तुमे वे भावे रे । ५२ ।। तु त्रिभुवन तारण मिलियों रे, सघलांरो संशय लियो रे। मुझ आज मनोरथ सीधो रे, मैं जन्म कृतारथ कीयो रे ॥ ५३॥ ॥ कलश॥ इम आदि जिनवर सदा सुखकर सेवतां संकट टले। करजोड़ करतां वले वीनति सकल मन वांछित फले ।। 'जिनराज' जगगुरु 'मान' सीसे, 'कमलहरषे' हित भणी । अरदास एहवी करी सुपरे सफल भव अपणो गिणी ॥५४॥ ॥ अथ भक्ति मार्ग नों कंटक ॥ राग सोरठ-ताल-लावणी चादर जीणीरास जीणो-ए देशी ॥ या डाकण दूरे भांगी, जिन गुण मां लय लागी ॥ माया० ॥ संत समागम करीने, हुँतो थयो वैरागीरे । भव वृद्धिनी कारण माया, समझी मनथी त्यागी ॥ माया० ॥१॥ अनन्त कालथी साथे रहिने, दुःख आपेच नागीरे । सतवचन थी दुःख करजाणी, कीधी मैंतो आधी । माया० २॥ अंशाने भव वनर्मा भमता, · थयो मोहनरागी रे। शिवपद कार सरलपणुछे, जोयु हवे में जागी॥माया० ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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