Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar
View full book text
________________
distralia
श्री आलोयण स्तवन परम दयाल कृपा करो, मति राखो विचार ॥०॥२४॥ मोटा रुख छेदापिया, कीधा आरम्भ । हाट हवेली कराविया, थाप्या मोटा थंभ। अ० ॥२५॥ रांगण पास मंडाविया, निवाह अनेक । घाणी करावी अतिघणी, रख्यो न विवेक । अ० ॥ २६ ॥ निंदा करता पारको, दिन रात गमाया। भोला माणस भोलव्या, करी कूडी माया ॥ अ० ॥२७॥ लोह राछ बेच्या घणा, न करी काई जयणा । पाहुकार पडाविया, दीघा नहीं देणां ।। अ० ॥२८। करसण कुआ बावड़ी, वलि सुड ने दाग। पाप करी पोतो भर्यो, धरतो मद माण ॥ अ० २६ ॥ कुड़ा माप कराविया कीधा कुडा तोल । घीने तेल भेला किया, देखी बहु मोल ॥ अ० ॥ ३० चाडी करतां पर तणी, जमवारो हार्यो। खाधी लांच जिहां तिहां, मन मूल न वार्यो । अ० ॥ ३१॥ आपणपौ वखाणियो, निर्गुण तज लाज। मात-पिता मान्या नहीं, करता निज काज ॥ अ० ॥३२॥ देव अने गुरु धर्मनी, न करी कांइ आण। धरम ठाम पातिक कियो, न धरी जिन आण ॥ अ० ॥३३॥ सात क्षेत्रो धन खरचतां, कीधी कृपणाई । आप सवारथ राचते, केइ बात बणाई ॥ अ० ॥३४॥ सरवर द्रह जल सोसिया लाख वाणिज कीधा । दंत केस रस विणजता, लख पातिक लीधा ॥ ० ॥३५॥ साजो साबू ने गुली, बलि सोमल खार। कुविणज करतां किम हुवे, स्वामी छूटक वार ॥ अ० ॥३६॥ टंकण लूण मोलाविया, आगर में जाय । लिहाला लेई बेचतां, किम जयणा थाय । अ० ॥३७॥ पुन्य ठाम आवी करी, विकथा परमाद। धर्म लेश सुण्यो नहीं, कीयो मोटो वाद ।। ॥ अ० ॥३॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114