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बारह भावना
१५ प्रमोद भावना. गुणी जीव को देखकर प्रसन्न होना, उसको धर्म का उपदेश देना, धर्म का अभ्यास कराना, धर्मी जीव को देखकर उसका अति आदर करना, उसके गुण का चिंतन करना, नमस्कार करके पैरों पड़ना, गुणी की भक्ति करना, अपनी शक्ति के अनुसार सहायता करना कष्ट को मिटाना, ऐसा करने से उसको सुख होता है, अपनी शक्ति के अनुसार दान करना, शक्ति को नहीं छिपाना, क्योंकि परभव जाने में वह साथ में संबल है, खूब उपकार करना।
१६ मध्यस्थ भावना. कोई जीव पापी हो, पाप के काम करता हो, अधर्म करता हो, नीच कर्म करता हो, बुरे व्यापार करता हो, चुगली वगैरः करता हो उसको सिखावण देना, कहना माने तो कहकर पाप से छुड़ाना, यदि कषाय उत्पन्न होतो नहीं कहना, मौन ही रहना, कोई पर राग-द्वष नहीं रखना, अपने ऐसा चिंतन करना कि यह बिचारा भारी कर्मी जीव है, जिसको जैसी गति में जाना होगा उसको वैसी ही बुद्धि उत्पन्न होगी, ऐसा जानकर अपने मध्यस्थ परिणाम से रहना, खराब रोजगार छोड़ देना, बुरी वाणी नहीं बोलना, बुरे व्यसन ( दुर्व्यसन ) छोड़ना, बुरे शब्द नहीं बोलना, खराब चलन छोड़ कर अच्छे चलन चलना, इसके वास्ते धर्म कथा, सिद्धान्त, धर्म मार्ग व्याख्यान आदि हमेशा
सुनना।
॥ इति श्री भावना सम्पूर्णम् ॥ १६ ॥
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