Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 57
________________ श्री आलोयण छतीसी आदउ मुलउ आदिदे, कंद मूल विचित्र । अनंत जीव सूई अग्र में, पन्नवणा सूत्र ॥ पा० ११ ॥ जीभ. स्वाद माऱ्या जिके, ते मारिस्यै तुज्झ । भव मांहें भमता थकां, थासे जिहां तिहां झूझ ॥पा० १२॥ झूठ बोल्या जीभडी, दीधा कूड कलंक । गलजीभी थास्ये गले, हुइस्ये मुहडो त्रिबंक पा०॥१३।। परधन चोऱ्या लूँटिया, पाड्यो ध्रसकउ पेट . भूखउ भमइ संसार में, निरधन थकउ नेट ॥पा०॥१४ परस्त्री नई तूं भोगवी, तुछ स्वाद तूं लेस । पिण नरकै ताती पृतलो, आलिंगन देस ।।पा० १५।। परिग्रह मेल्यउ अति घणउ, इच्छा जेम आकाश । काज सर्यो नहीं तेहनउ, उत्तराध्येने प्रकाश पा० १६॥ घाणी घरटी उखली, जीव जंतु पीडेस। खामिवू नहींतर नरक में, घाणी मांही पीलेस पा०१७॥ छाना अकारिज करि पछइ, गर्भ नाख्या पाडि । परमाहम्मी तेहनइ, नितु नाखिस्यै फाडि ॥पा०१८ ॥ गोधानां नाक बींधीया, खसी कीधा बलद्द । आरंभो उठाडिया, राति ऊचे शबद्द ।। पा० १६ ।। वाला वाढ्या टांकतां, मांकण खाटला कूट। विरेच लेइ क्रिमी पाडिया, गलणउ गयउ छूट ।पा० २०॥ राग द्वेष खाम्या नहीं, जां जीव्या तां सीम। - अनंतानुबंधी ते थया, कहि करेस तूकीम ॥पा० २१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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