Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar
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श्री आलोयण स्तवन
मझार, कीधा पाप अनंती वार। ते जिनवर तुं जाणे सही, तो पिण आलोउ मुख कही ॥२॥ पूरव पाप तणे परकार, पाम्यो नीच कुले अव. तार । काज अकाज किया जेतला, भव भवनां दाखं तेतला ॥ ३ ॥ जलघर थलचर पंखी जीव, मार्या में पाईतां रीव । रात दिवस आहेड़े रम्यो, मृग मारेवा वन में भम्यो ॥४॥ रिण में हाथ गृही हथियार, सुभटा रा कोघा संहार । विण अपराधे घाल्या घाव, पिण पापी न कियो पछताव ॥ ५॥ पुर पाटण परजाल्या गाम । बनदव दीघा ठामो ठाम । भील भवे कीघा बहु पाप, सघला जाणे तुं माय बाप ॥ ६ ॥ पेट भरेवा पातक कीयो, हणता जीव घणु हरखियो। हिंसा दोष विचार्यो नहीं । धवलो तेतो जाण्यो दही ॥ ७ ॥ हंस मोर सारस ने चास, रोज हिरण वलि पाड्या पास । वारी करी हाथी झालिया, इण विधि पातक बहुला किया ॥८॥ माकड़ लूँ तावड़ नाखिया, बोछु पकड़ी ने राखीया। मकोड़ा माख्या घीवेल, बिल में ऊनो पाणी रेल ॥ ६ ॥ माखी ईली ने अलसिया, कीड़ी गादहीया गौमिया। सीप कातरा वली चूडेल, वरसाले नाख्या पगवेल ॥ १० ॥ मंजारी राखी घर जाण, ऊदर मरता न धरी काण । कुत्ता पाली मोटा किया, असती पोषण न विचारिया ॥ ११ ॥
॥ ढाल॥ कपूर हुने अति ऊजलोरे । एदेशी ।। खांडण पीसण राधणेरे, सोवण जीमण ठाम । पडिकमणे जल उपरे, रे,देहरासर हित कामरे । जिनवर साँभल एह अरदास (ए आंकणि.)
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