Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 38
________________ श्री आलोयण स्तवन ॥ १२ ।। आठे ठामे चन्द्रु आरे, बांध्या नहीरे लिगार । शक्ति छतां धन खर्चतारे, आण्यो लोभ अपाररे ।। जि० ॥ १३ ॥ कीधी चौरी पारको रे, पाडी घाड अपार । परनी थापण आलवी रे, न धर्यो पाप लिगार रे ॥ जि० ॥ १५ ॥ हासे भय क्रोध करी रे, बोल्या मृषावाद । परना गुण देखी करी रे, आण्यो मन विषवाद रे॥ जि० ॥ १५ सारो दिन राते रह्यो रे, परनारी ने संग । साते कुविसन सेवियारे, पापी ने परसंगरे ॥ जि० ॥ १६ ॥ पांचेइन्द्री मोकली रे, मूकि जिण तिण ठाम । भोले पिण राख्यों नहीं रे, हियडे जिनवर नामरे ॥ जि० ॥ १७॥ व्रत लेइ भांज्यां वली रे न धरी गुरुनी काण। समकितशुद्ध न राखियो रे, चित्त न धरी जिनवाणरे ॥ जि० ॥ १८ ॥ अभक्ष अथाणां मद भख्यारे, रात्रिभोजन कीध। कन्द मूल टाल्यां नहीं रे, अणगल पाणी पीथ रे ॥ जि० ॥१६॥ मधु मांखण ने मांस नो रे, टालो न कर्यो कोइ । जीभ सवादे जीव ने रे, लागा पातिक सोइ रे ॥ जि० ॥२०॥ माले पंखी मारिया रे, इडा फोड्या कोड। ते दूषण लागा घणारे, आलोवू कर जोड़ रे ॥ जि० ॥२१।। बाल बिछोहो मात ने रे, पाम्यो कर्म विशेष। गाय न मेली वाछडी रे, पाम्यापातक देख रे ॥ जि० ॥२२॥ ॥ ढाल २॥ ___ सीण सीखण चेलणा ॥ ए देशी ॥ गाम मुकाते मेलिया, अकरा कर कीध । लोभ करी जन मारिया,कुडा लज दीघ ।।२३।। अवधारो प्रभु विनती मुझ तारो संसार ॥ ए आंकणी॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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