Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 45
________________ . बारह भावना ६ अशुचि भावना रे जीव ! यह काया अशुची ( अशुद्धि ) से भरी हैं, मल, मूत्र, लोही, हाड और मांस से भरी है, ऊपर चर्म से लपेटी है नसों की जाल से बंधी है पुरुषों के नौ द्वार और स्त्री के ग्यारह द्वार तू नजरों से देखता है ऐसा जानकर संसार में लिपटना नहीं इस पर राग नहीं करना, सिर्फ धर्म के ही ऊपर राग करना कि जिससे अपना कल्याण हो ॥ ६॥ ७ आसव भावना संसारी जीव क्रोध, मान, माया, लोभ मिथ्याज्ञान आदि से नये नये कर्म बांधता है, इत्यादि विचार करना 'आसूत्र. भावना' कहाती है आसव भावना से भावित आत्मा आसव को रोकने के लिये समर्थ होता है। ८ संवर भावना कर्म बंध के कारणभूत मिथ्याज्ञान आदि को रोकने के उपाय सम्यक्ज्ञान आदि हैं। इत्यादि विचार करना ‘संवर भावना — कही जाती है, संवर भावना वाला जीव संवर में तत्पर हो सकता है ॥८॥ हनिर्जरा भावना - आत्म प्रदेशों के साथ लगे हुए प्राचीन कर्मों को बाह्य और अभ्यंतर तप द्वारा दूर करना, तप जप ध्यानादि से उन पूर्वकृत कर्मों के विपाकोदय को पैदा ही न होने देना, इस प्रकार के प्रबल पुरुषार्थ को 'निर्जरा' कहते हैं । निर्जरा दो प्रकार की होती है, सकाम और अकाम, समझकर तप आदि के जरिये कर्म का क्षय करना 'सकाम'। बिना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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