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आत्म निन्दा अरे चेतन ! तेरी मामायिक तो यह है -
॥चौपई॥ त्रितवन करे गृह कार्य कहे, निंदा, विकथा, कर खीज रहे।
आर्त रौद्र ध्यान मन में धरे, वह सामायिक निष्फल करे । सामायिक इस प्रकार करनी चाहिये
॥चौपई ॥ अपना पराया सम गिने, कंचन पत्थर समवड़ धरे। सच्चा सम पर रुचि से पढ़े, वह सामायिक शुद्ध करे ।
चन्द्रावतंसक राजा ने जो सामायिक व्रत का पालन किया वह इस तरह नहीं किया था, कि अपनी आत्मा का भला चाह कर दूसरी आत्मा का बुराँ चाहेउसने पराई आत्मा का बुरा चिंतन नहीं किया किन्तु स्वआत्मा को ही बुरा कहा।
अरे चेतन ! तू कंचन की तो इच्छा करे और पत्थर को दूर फेंके, सो उसमे कंचन की प्राप्ति होना तो दूर रहा उल्टे पत्थर ही मिलेंगे। तू तो भूठ ही बोलता रहा है, यदि तू तेरे गुण ही का चिंतन करे तो तू अवेदी, अफरसी, अघाती, अविनासी है । यह मेरे दुश्मन, यह मेरे सज्जन, परन्तु कौन तेरा दुश्मन है ? और कौन सज्जन ? हे चेतन ! तेरे तो आठ कर्मरूपी शत्रु ही बरी हैं। इसको ज्ञानरूपी आग से भस्म कर दे। जिससे तेरी आत्मा का कल्याण हो । मैं भव्य हूँ या अभव्य हूँ, या दूर भव्य हूँ, या मुझे स्वतः ही संसार बहुत दीखता है। परन्तु मैं तो प्रायः अभव्य ही दीखता हूँ फिर तो ज्ञानी पुरुष जाने । अरे चेतन ! सामायिक तो तू
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