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श्रावक के तीन मनोरथ
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करता है, परन्तु खाज खुजाता, कडके मोडता और निद्रा ले घोर शब्द करता है । अरे! तेरी सामायिक तो ज्ञानी स्वीकार करेंगे तब ही फल यक होगी।
॥ दोहा ॥
कीन ।
आतम-निंदा आपकी, ज्ञानसार मुनि जो आतम-निंदा करे, सो नर सुघड़ प्रवीन ॥ ॥ इति आत्मनिंदा सम्पूर्ण ॥
श्रावक के तीन मनोरथ
( नीचे लिखे तीन मनोरथों को चिंतन करने से निर्जरा होकर संसार का अन्त होता है )
पहिला
मनोरथ
बाह्य एवं अभ्यंतर परिग्रह महापाप का मूल है, दुर्गति का देने वाला है, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, विषय और कषाय का स्वामी है, महा दुख का कारण, अनर्थकारी, दुर्गति की शिला, बुरी लेश्या का परिणामी है। अज्ञान, मोह, मत्सर, राग और द्वेष का मूल है। दस प्रकार के यति धर्मरूप कल्पवृक्ष को दावानल समान है। ज्ञान क्रिया क्षमा दया सत्य संतोष एवं बोधिबीजरूप समकित का नाश करने वाला है । संयम • और ब्रह्मचर्य का घातक है। कुमति दुर्बुद्धिरूप दुख दारिद्र का देने वाला
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