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आत्मनिन्दा
॥ चौपाई ॥
सामायिक शुद्ध मन से करो, निंदा विकथा सब परिहरो । राग द्वेष करो नहीं मन, जिससे छुटे जीव से तन ॥ परन्तु तुम्हारी सामायिक तो यह है ।
॥चौपई ॥
सामायिक अशुद्ध करो, निंदा विकथा अति ही करो । राग द्वेष भरा अति मन, कभी न छूट जीव से तन ॥ २ ॥ वास्ते सामायिक इस प्रकार करो
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॥चौपई ॥
सामायिक शुद्ध मनसे करो, निंदा विकथा मद परिहरो । पढो गुणो वाचन सब करो, जिम भवसागर लीला तिरो । अरे चेतन ! तुझे बांचने की आदत कहां ? क्योंकि तूने श्रुतज्ञान को बहुमान नहीं दिया, इसलिए तुझ पर ज्ञानावर्णी कर्म का अंकाररूपी पड़दा पड़गया है श्रुतज्ञान की जो आराधना करते हैं, और श्रुतज्ञान का जो अति आदर ( सत्कार ) करते हैं, उनके ज्ञान, दर्शन और चारित्र निर्मल होते हैं, और उन्हीं को ज्ञान की प्राप्ति होती है, जिसको केवलज्ञान की और केवल दर्शन की प्राप्ति होती है, वे ही मोक्षरूपी लक्ष्मी को वरते हैं, अर्थात् प्राप्त करते हैं । परन्तु हे चेतन ! तू इस भरोसे में मत रहना, यह तेरी सामायिक वैसी नहीं है वह सामायिक तो उत्तम पुरुषों ने की है जैसे कि आनन्द, कामदेव, संख, पुष्कल, पूरणसेठ ओर चंद्रावतंसक राजा ने की थी ।
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