Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar
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आत्मशिक्षाभावना
परिसह सही पदवी वरी, अमर वधू धरि नेह ॥१२५॥ वंश उपर नाटक करी, एलापुत्र कुमार। जाति-समरण ऊपर्नु, ज्ञान अनंत अपार ॥१२६।। कर्म वशे आषाढ मुनि, भरतनु नाटक कीध । अनित्य भावना भावतां, तिणे तिहां केवल लीघ ॥१२७॥ सुशिष्य पंथकजी मुनि, गुरु प्रमाद कियो दूर । शत्रुजय अणसण करी, ते वंदु गुण सूर ॥१२८।। चंडरौद्र गुरु खंधे करी, रजनी कियो विहार । शिष्य पण केवल पामियो, तिम गुरु केवलधार ॥१२६।। षट्मासीने पारणे, ढंढण नाम कुमार। मोदक चूरत पामियो, केवलज्ञान उदार ॥१३०॥ षट् खंड राज हेलां तजि, लीधो संजम भार । षट्दश रोग इहां सह्या, श्री सनत्कुमार ॥१३१॥ कूरभखतां केवल लह्य, कूरगडु अणगार । क्षमा खड़ग हाथे धरी, जे मुनिमा सिणगार ॥१३२॥ पंखी प्राणज राखवा, करि खंडोखंड देह । मेघरथ रायतणे भवे, प्रसन्न हुओ सुर तेह ॥१३३॥ वंदी वीर गुमानसु, दशार्णभद्र नरसिंह । सुरपति पाय लगाडियो, जग राखी जिण लीह ॥१३४॥ प्रसन्नचंद्र काउसग्गमां, कोपी युद्ध करंत । कोप शम्यो केवल लह्य, मोहटो ये गुणवंत ॥१३५॥ अइमंतो सुकुमाल मुनि, वखाण्यो वीर जिणंद ।
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