Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 21
________________ आत्मशिक्षाभावना. इरियावही पडिक्कमता, केवल लह्य, आणंद ॥१३६॥ वीरजिन वचने थिर रह्यो, श्रेणिक सुत मेघकुमार। जातिसमरण पामियो, करि दो नयणां सार ॥१३॥ हाट वेचाणी चंदना, सुभद्रा चढ्यु कलंक।. . दमयंती नल वियोग लह्यो, एह कर्मनो वंक ॥१३८॥ कलावती कर छेदिया, द्रौपदी काढ्यां चीर। .. अग्नि शीतल सीता कस्यो, शील गुणे थ नीर ॥१३९॥ चंदना चरण मृगावती, खमावि निज अपराध । केवल लहि गुरुणी दियो, दो जीव टल्यो विषवाद ॥१४०॥ चंद कलंक सायर कर्यो, खारो नीर किरतार। नवसो नवाणु नदी तणो, देखो ए भरतार ॥१४१॥ हरिचंदराय करम वशे, शिर वद्य डुब घर नीर। कर्म वशे नर सवि नम्या, जे जग बावन वीर ।।१४२॥ गउ ब्राह्मण स्त्री बालक, दृढ़प्रहारे हत्या कीध । चार पोल काउसग्ग रही, षट्मासे केवल लीध ॥१४३।। मेरू ढले ने ध्रुव चले, सायर लोपे लीह । कीधां कर्म न छुटिये, जो ऊगे पश्चिम दीह ॥१४४॥ कीधा कर्म तो छुटिये, जो कीजे जिनधर्म । मन वच कायाये करी, ए जिनशासन मर्म ॥१४५।। कर्म प्रकाशी आपणां, मन शुद्ध आणंद पूर । सुहगुरु पास अच्छे वली, जाय पाप सवि दूर ॥१४६।। बलवंत अनंता जे नरा, केइ सुर सुभट जूझार । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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