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आत्म निंदा
अरे! तेरा कहां छुटकारा होगा । अरे चेतन ! तूं पुद्गल (शरीर ) के वास्ते कितना आकुल व्याकुल बना रहता है ? कि मुझे पारस पत्थर (एक प्रकार का पत्थर होता है जिसके लोहा स्पर्श करने से सोना हो जाता है), नव निधान, रसकुँपी (लोहवेधी रस), रसायण, चित्रावेल, अमृत गुटिका, आदि मिल जाय अथवा देवता को वश करूं या बादशाह हो जाऊं, सेठ हो जाऊं, सेनापति हो जाऊं, इस प्रकार जैसे तैसे करके पौद्गलिक सुखादि उपार्जन करू, ऐसे अनेक प्रकार के चिंतन करता रहता है । और ऐसा होता भी है, क्योंकि इसमें गुणस्थानक वाले को लोभ छूटा नहीं तो तेरी गरज कैसे पूरी हो ? अरे चेतन ! तू मन में चिंतन कर रहा है कि मेरा घर, मेरा पिता, मेरा पुत्र, मेरा कुटुम्ब, मेरा शरीर, अरे चेतन ! चौरासी लक्ष योनि में फिरकर लाखों घर किये, और फिर करता फिरता है, तो भी तुझे स्थिरता नहीं हुई, संसार में न तो तू किसी का है और न कोई तेरा है। अरे! तेरी उत्पत्ति को तो देख! कि कोई वक्त तो तू माता, कोई वक्त पिता, कोई वक्त पुत्र, कोई वक्त पुत्री एवं कोई वक्त स्त्री आदि हुआ, अरे! तेरे इस नाच को तो देख कि कितने ढंग बदले ? तो भी तँ अपनी चाल छोड़ना नहीं चाहता ।
एक ठग की लड़को ने कहा था 'हे माता पिता ! मैं इतने पाप करती हैं तो उनका फल कौन भोग करेगा ?' तब माता-पिता बोले, हे बेटी ! जो करेगा सो ही भुगतेगा ( भोगेगा ) वास्ते हे जीव ! धिक्कार हो इस संसार के रहने में, कोई किसी का नहीं यह मनुष्य
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