Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 17
________________ १० आत्मशिक्षा भावना " बाहुबलि हार मनावियो, आज लगे कहेवाय ॥ ६२ ॥ कीधां कर्म न छूटिये, जेहनो विषमो बंध | ब्रह्मदत्त नर चक्कबई सोल वरस लगे अंध ॥ ६३ ॥ आठमो सुभूम चक्कवी, ऋद्धि तो नहीं पार | कर्मवशे परिवारशु बूडा समुद्र मकार ॥ ६४ ॥ पांच पांडव अतुल बली, तेह भम्या वनवास । इस्या पुरुष जगमांवली, दीनपणे फर्यो निराश ॥ ६५ ॥ राम लखमण जगमां वली, जेहनूं जपे सहु नाम | ते वनवास मांहें रह्या, जे बहु गुणना धाम ॥ ६६ ॥ रावण विकट रामे हण्यो, कृष्णे हण्यो जरासंध । जराकुमर हरिने हण्यो, देखो कर्म नो बंध ॥ ६७ ॥ निज पुत्री ताते वरी, तस कूखे कर्मवशे जीव ऊपनो, त्रिपृष्ट भमतां भमतां अवतर्यो, देवानंदानी कूख । ब्यासी रात्रि तिहां रही, कर्मे ला, वलि दुख ॥ ६६ ॥ इंद्र अहिल्याशुं जुओ, लुब्ध हुओ सुरदेव । ईश्वर देव नचावियो पारवती पियु हेव ॥ १०० ॥ मासखमण ने पारणे, कूलवालुओ अणगार । चितवलग्यु संग नारिये, चूकत न लागी बार ॥ १०१ ॥ पांचशे रामा तजी, लीधो संयम भार । दश दश नंदिषेण बुझवी, नर वेश्या दरबार ॥१०२॥ बांधी तांतण सूत्रना, विट्यो आर्द्र कुमार । Jain Educationa International सुत हेव । वासुदेव ॥ ६८ ॥ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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