Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 15
________________ आत्मशिक्षामाक्ना पर अवगुण सरसव समो, अवगुण निज मेरु समान । कां करे निंदा पारकी, मूरख आपण शान ॥ ७१ ॥ पर अवगुण जिम देखिये, तिम परगुण तुजोय । पर गुण लेतां जीवडा, अखय अजरामर होय ॥ ७२ ॥ क्रोधी नर अच्छे सदा, कहिये जो उलटी रीश । ते छोडी दूर आतमा, रहे जोयण पणवीस ॥ ७३ ॥ गुण कीधा माने नहीं, अवगुण मांडी मूल । ते नर संगति छांडिये, पग पग मां घा मूल ।। ७४ ॥ निंदा करे जे आपणी, ते जीवो जगमाय । मल मूत्र धोये परतणां, पछे अधोगति जाय ॥ ७५ ॥ जे मल मूत्र धोए सदा, गुणवंतना निशदीस। ते दुर्जन जीवो घणु, जगमां कोडि वरीस ॥ ७६ ॥ सज्जन दुर्जन किम जाणिये, जब मुख बोले वाण । सज्जन मुख अमृत लवे, दुर्जन विषनी खाण ॥ ७७ ॥ नरभव चिंतामणी लही, आले तु मम हार । धर्म करीने जीवडा, सफल करो अवतार ॥ ७८ ॥ सकल सामग्री ते लही, जिण तरिये संसार । प्रमाद वशे भव कां गमे, करनिजहिये विचार ॥ ७९ ॥ दियो उपदेश लागे नहीं, जो नवि चिंते आप। आप स्वरूप विचारतां, छुटीजे सवि पाप ॥ ८०॥ जिण रस पाप किया तुमे, तिण रस तु कर धर्म । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org

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