Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 13
________________ आत्मशिक्षाभावना रात दिवस निज नारिस, त रमतो मन रंग। जे जोइये ते पूरतो, ऊलट आणी अंग ॥ ५० ॥ सो रामा जीव ताहरी, क्षणमांही विघटाय । स्वारथ पहोचत जब रह्यो, तब फरि वैरी थाय ॥ ५१ ॥ समुद्र द्वीप सायर सबे, पामे को नर पार । नारी छिद्र चरित्रनो, को नवि पाम्यो पार ॥ ५२ ॥ बह्मा नारायण ईश्वर, इंद्र चंद्र नर कोड़। ललना वचने लालची, ते रह्या बेकर जोड़ ॥ ५३ ॥ नारी वदन सोहामणु, पण वाघण अवतार । जे नर एहने वश पड्या, तस लूंख्या घर बार ॥ ५४ ॥ हसतमुखी दीसे भली, करती कारमो नेह । कनकलता बाहिर जिसी, अंतर पित्तल तेह ॥५५॥ पहली प्रीत करि रंगस, मीठा बोली नार । नरने दास करि आपणो, मूके टाकर मार ॥ ५६ ॥ नारी मदन तलावड़ी, बूड्यो सयल संसार । काढनहारो को नहीं, बूडा बब निबार ॥७॥ वीशवसाना जे नरा, कोई नहीं तस वंक । नारी संगति तेहने, निश्चे चढे कलंक ॥ ५८ ॥ मुंज ने चंडप्रद्योतना, दासीपति पाम्या नाम । अभयकुमार बुद्धि आगलो, तेह ठग्यो अभिराम ॥ ५६ ॥ नारी नहीं रे बापड़ा, पण ये विषनी वेल । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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